हफ्ता दस दिन पहले माटी के मूर्ति की बुकिंग शुरू हो जाती थी। मुझे याद है मैं महीना दिन पहले से हर दिन शाम में अपने स्कूल से आने के बाद, कपडे बदल कर, गाय से निकला हुआ गरम गरम कच्चा दूध पी कर सबसे पहले अपनी साइकिल उठाता और तिन मिल दूर मूर्ति मेकर्स के पास पहुच जाता। तब मूर्ति मेकर्स मूर्तियों का फ्रेम बनाते थे या कह लीजिये पुआल का ढांचा डिज़ाइन करते थे। मैं मूर्तियों को देखता और मूर्ति मेकर्स से हिसाब से ही सवाल करता ताकि वो गुस्सा न खा जाये। मैं अपने मंडप के साइज़ में फिट होने वाले मूर्ति का साइज़ देखता और सबसे छोटे साइज़ की मूर्ति ही फिट हो पाती। साथ ही साथ दिमाग में हरदिन कुछ रूपये इकठ्ठा करता! सोचता, पिताजी ड्यूटी से वापस आएंगे तो ठीक है, मूर्ति खरीद पाउँगा वरना मम्मी के पास बिस रूपये मूर्ति के लिय प्लस प्रसाद के बिस; कुल चालीस रूपये। सोच कर ही इम्पॉसिबल लगता था।
कल बसंत पंचमी आने को थी। और मैंने पूरी तयारी कर ली थी। मंडप तैयार था। तरह तरह के डिज़ाइन के कागज के फूल और त्रिकोण काटने वाले छ्विलाजी को हमने पांच रूपये में तयार कर लिए थे। उसकी व्यस्तता को देखते हुए हमने प्रॉमिस कर दिया था की आप जितना कहेंगे उतना हम आपको देंगे लेकिन मेरा मंडप इस गाव का सबसे खूबसूरत मंडप होना चाहिए।हमने किसी बड़े की सिफारिश की ज़रूरत नहीं समझी और सात रूपये लग गए। पांच रूपये उनकी फीस और दो रूपये का उनके लिए पान और ज़र्दा जो उन्होंने पुरे दिन चबाये और थूके। पुरे दिन सोचता रहा साला मूर्ति का बयाना दे रखा है। कही से पंद्रह रूपये आ जाये की जा कर मूर्ति ले आउ। मम्मी ने दादी से कहा। दादी ने कहा था की आज के दिन चाचाजी आने वाले हैं। पैसे वही दे सकते है। सूरज की किरणों के घर तक पहुचने से पहले से ही मैं अपने इमेजिनेशन में चाचाजी को ड्यूटी से घर आते हुए देखता, उन्हें कपडे बदलते हुए देखता, फिर वो घर से बहार आ कर वेरंदा पर बैठते और यही सबसे अच्छा समय होता। क्या कहूँगा उनसे? वो तो डाटेंगे, कहेंगे की पढाई लिखाई छोड़ कर अब ये सब धंधा पानी शुरू कर दिया? जो भी हो मूर्ति तो आएगी और धूम धाम से पूजा होगा। मन ही मन सोचता कही से बारह वाल्ट की बैटरी का जुगाड़ हो जाये तो कल पंडित के मंत्र जाप समाप्त होते ही चाचाजी के कमरे से म्यूजिक प्लेयर लगाकर हिंदी के सुपरहिट गाने बजा देता।
शाम ढल ही रही थी की दूर बांस के बागान के बीचो बीच एक पैडिये रस्ते से कोई आता नज़र आया। बगुले की ध्यान से देखा तो ख़ुशी के ठिकाने न रहे। खूब कुदा, नाचा, इधर उधर भगा। वो चाचाजी थे। जैसे जैसे उनका कदम घर के करीब आता, मेरे दिल की धड़कन उतना ही तेज़ होती। ख़ुशी तो थी लेकिन उनसे पैसे कैसे माँगा जाये? जौसे ही वो आये सबसे पहले हमने उनका चरण स्पर्श किये और घर के अंदर जा कर सबको गुड न्यूज़ दे डाली।
चाचाजी आँगन में गए। दादी और मम्मी के चरण स्पर्श करते हुए चाचिजी के पास पहुच गए जो रोटी बेल रही थी। उन्होंने चाचाजी से थोड़ी अठखेलिय की और अपने कमरे में चले गए और थोड़ी देर बाद बहार निकले। उन्होंने लुंगी और बनियान पहन रखा था। फिर वो आँगन में गए और दादी से पुछा "बाहर किस चीज़ का मंडप लगा है?"
"कल सरस्वती पूजा है।"
मिर्ती वाले के यहाँ पंहुचा तो देखा अभी भी लोग मूर्तियां खरीद रहे थे। मैं अपने मूर्ति के पास गया और देख कर विश्वास नहीं हुआ मूर्ति इतनी सूंदर बानी थी। जबकि हमने अभी मूर्ति का चेहरा भी नहीं देखा था। पूजा के दो दिन पहले से मूर्ति का चेहरा ढक दिया जाता था और उसे पूजा क दिन पूजा से बस थोड़ी देर पहले ही हटाना होता था, वो भी बिना पंडितजी के इज़ाज़त के पहले पॉसिबल न हो पाता था।
मैंने मूर्ति मेकर के हाथ में पंद्रह रूपये रखे और अपनी मूर्ति बड़े कोमलता से उठाकर साइकिल के पिछले कैरियर पे एडजस्ट किया और उसके लकड़ी से बने बेस को कैरियर से रस्सी के सहारे कस कर बांध दिया! मित्र नें मूर्ति को पीछे से हलके हाथ से पकड़ लिया. साइकिल का स्टैंड छाट्ट्काते हुए निकल लिया!